Wednesday, June 25, 2025
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Geeta Ka Gyan -1: श्रीमद भागवत गीता का प्रथम अध्याय – प्रथम श्लोक – पढ़ें अर्थ सहित व्याख्या

Geeta Ka Gyan : आइए, हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाएँ और हर दिन श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक पढ़ें। यह न केवल आपको जीवन के यथार्थवादी आध्यात्मिक ज्ञान की गहरी समझ देगा, बल्कि जीवन को बेहतर ढंग से समझने में भी सहायता करेगा और अनेक समस्याओं को सुलझाने में सहायक सिद्ध होगा...

Geeta Ka Gyan : आइए, हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को आगे बढ़ाएँ और हर दिन श्रीमद्भगवद्गीता का एक श्लोक पढ़ें। यह न केवल आपको जीवन के यथार्थवादी आध्यात्मिक ज्ञान की गहरी समझ देगा, बल्कि जीवन को बेहतर ढंग से समझने में भी सहायता करेगा और अनेक समस्याओं को सुलझाने में सहायक सिद्ध होगा.

श्रीमद्भगवद्गीता – प्रथम अध्याय – प्रथम श्लोक

श्लोक

धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१.१॥


शब्दार्थ

  • धृतराष्ट्र उवाच → धृतराष्ट्र ने कहा।
  • धर्मक्षेत्रे → धर्मभूमि में, धार्मिक स्थल में।
  • कुरुक्षेत्रे → कुरुक्षेत्र में (जो कौरवों और पांडवों का युद्धस्थल था)।
  • समवेता → एकत्रित हुए।
  • युयुत्सवः → युद्ध की इच्छा वाले, लड़ने को तत्पर।
  • मामकाः → मेरे पुत्र (कौरव)।
  • पाण्डवाः → पांडु के पुत्र (पांडव)।
  • च एव → और भी (अर्थात दोनों पक्ष)।
  • किम् अकुर्वत → क्या किया?
  • सञ्जय → हे संजय! (धृतराष्ट्र के मंत्री और सारथी, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी)।

अर्थ

अंध राजा धृतराष्ट्र, जो कौरवों के पिता थे, अपने मंत्री संजय से पूछते हैं—

“हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित होकर मेरे पुत्र (कौरव) और पांडु के पुत्र (पांडव) क्या कर रहे हैं?”


व्याख्या

इस श्लोक के माध्यम से गीता का प्रवेश होता है। धृतराष्ट्र स्वयं अंधे थे, न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि नैतिक दृष्टि से भी। वे जानते थे कि युद्ध होने वाला है, फिर भी वे अपने पुत्रों की विजय को लेकर चिंतित थे।

  1. “धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे”

    • कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है, क्योंकि यह स्थान यज्ञों और तपस्याओं का क्षेत्र रहा है।
    • यह भूमि सत्य और धर्म की विजय का प्रतीक रही है।
    • धृतराष्ट्र को यह भय था कि कहीं इस धर्मभूमि में उनके पुत्रों (कौरवों) के लिए यह स्थान अशुभ न साबित हो जाए।
  2. “मामकाः पाण्डवाश्चैव”

    • यहाँ धृतराष्ट्र अपने पुत्रों (कौरवों) और पांडवों में स्पष्ट भेदभाव कर रहे हैं।
    • उन्होंने “मामकाः” (मेरे पुत्र) और “पाण्डवाः” (पांडु के पुत्र) कहकर यह जता दिया कि वे पांडवों को अपने परिवार का हिस्सा नहीं मानते।
    • यह उनके संकीर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है और उनकी आसक्ति (मोह) को प्रकट करता है।
  3. “किमकुर्वत संजय”

    • धृतराष्ट्र यह नहीं पूछते कि युद्ध का क्या परिणाम होगा, बल्कि यह पूछते हैं कि उनके पुत्र क्या कर रहे हैं।
    • उन्हें यह चिंता थी कि कहीं धर्मभूमि में उनके पुत्रों का मनोबल न गिर जाए।
    • वे यह भी जानना चाहते थे कि पांडवों की सेना किस प्रकार से युद्ध की तैयारी कर रही है।

गूढ़ अर्थ

  • यह श्लोक केवल कुरुक्षेत्र के युद्ध का वर्णन नहीं करता, बल्कि यह मानव जीवन के संघर्षों का प्रतीक है।
  • “कुरुक्षेत्र” स्वयं हमारे जीवन का प्रतीक है, जहाँ हमें प्रतिदिन अच्छे और बुरे विचारों के बीच संघर्ष करना पड़ता है।
  • “धृतराष्ट्र” अज्ञानता और मोह का प्रतीक है, जो मनुष्य को सत्य देखने नहीं देता।
  • “संजय” विवेक और दिव्य दृष्टि का प्रतीक है, जो सत्य को देख सकता है।

शिक्षा

  1. आसक्ति का परिणाम – धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के प्रति आसक्त थे, इसलिए वे न्याय का पक्ष नहीं ले पाए और अंततः उनके कुल का विनाश हो गया।
  2. धर्म और अधर्म का संघर्ष – जीवन में हमें हर दिन सही और गलत के बीच निर्णय लेना होता है।
  3. विवेक की महत्ता – संजय की दृष्टि विवेकपूर्ण थी, जिससे वह युद्ध के सही और गलत पक्ष को देख सकते थे।

सारांश

गीता का यह प्रथम श्लोक हमें बताता है कि मानव जीवन स्वयं एक युद्धभूमि है, जहाँ हर व्यक्ति को अपने भीतर के अज्ञान (धृतराष्ट्र) और विवेक (संजय) के बीच निर्णय लेना पड़ता है। धर्म की भूमि पर अधर्म टिक नहीं सकता, और अंततः सत्य और धर्म की ही विजय होती है।

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