Meerut: कल 26 अक्टूबर का दिन मेरठ के व्यापारियों के लिये बहुत बुरा रहा – सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हिंदू व्यापारियों की दुकानों को तोड़ दिया गया..
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हिंदू व्यापारियों की दुकानों को तोड़ दिया गया, यह कहते हुए कि उन्होंने “घर के अंदर दुकानें क्यों खोली हैं।” ये दुकानें कोई नई नहीं थीं — कई वर्षों से वहाँ चल रही थीं, और सबसे ज़रूरी बात यह कि वे किसी और की ज़मीन पर नहीं, बल्कि अपनी ही ज़मीन पर बनी थीं।
कल कुल 22 दुकानें तोड़ी गईं, और अब कहा जा रहा है कि आने वाले एक साल में पूरा मार्केट ही उजाड़ दिया जाएगा।
पीड़ित पक्ष का कहना यह है —
पहला, अगर यह काम वाकई ग़लत था, तो शुरुआत से ही रोक क्यों नहीं लगाया गया?
जब ये दुकानें बन रही थीं, तब किसी ने क्यों नहीं कहा कि यह अनुमति के विरुद्ध है? इतने साल तक किसी ने आवाज़ नहीं उठाई, और अब अचानक सब कुछ तोड़ देना क्या न्यायसंगत है?
दूसरा, जिन लोगों का सालों पुराना जमा-जमाया रोज़गार था, उनसे अब उनका सहारा छीन लिया गया है — तो अब उन परिवारों का क्या होगा?
इन दुकानों से सैकड़ों घरों का चूल्हा जलता था। अब वे लोग कहाँ जाएँगे, क्या खाएँगे, अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएँगे?
तीसरा, ये दुकानदार ईमानदारी से मेहनत करके अपनी रोज़ी कमा रहे थे।
आज जब आम नागरिकों के लिए नौकरियाँ पहले से ही कम हैं, तो ऐसे में अगर किसी का व्यवसाय भी उजाड़ दिया जाए, तो वे लोग क्या करें? अपराध का रास्ता अपनाएँ या आत्महत्या कर लें?
चौथा, हर शहर, हर कॉलोनी में लोग अपने घरों के आगे या नीचे छोटी-छोटी दुकानें खोलते हैं और धीरे-धीरे वही जगहें छोटे मार्केट का रूप ले लेती हैं।
तो क्या अब पूरे देश में यही नियम लागू किया जाएगा — कि घर के हिस्से में कोई दुकान नहीं हो सकती? अगर ऐसा हुआ, तो लाखों छोटे व्यवसाय खत्म हो जाएँगे।
पाँचवाँ, यही अदालतें जिन्होंने अब निजी संपत्ति पर बनी दुकानों को “ग़लत” ठहराया, उन्होंने पहले सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर बैठे रोहिंग्याओं को हटाने का आदेश तो दिया था,
लेकिन बाद में कुछ न्यायाधीशों ने उन रोहिंग्याओं को वापस बुलाने तक का आदेश दे दिया!
तो क्या यह न्याय समान रूप से सबके लिए नहीं होना चाहिए?
छठा, योगी आदित्यनाथ जी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि एक नया कानून लाकर ऐसी दुकानों को कानूनी रूप से व्यावसायिक (commercial) मान्यता दी जाएगी।
तो फिर सुप्रीम कोर्ट को मुख्यमंत्री के इस फैसले को ओवररूल करने की क्या आवश्यकता थी?
क्या राज्य सरकार और जनता की भावना को नज़रअंदाज़ करना न्याय कहलाता है?
सातवाँ, आखिर सुप्रीम कोर्ट किसके लिए काम कर रहा है —
क्या यह वास्तव में जनता के हित में है, या फिर यह व्यवस्था कहीं “पुतना” की तरह जनता और देश की आत्मा को ही निगल रही है?
अब सवाल यह है —
इतने लोगों की रोज़ी-रोटी, इतनी परिवारों का भविष्य —
उन्हें इन “निर्दयी फ़ैसलों” की गिरफ्त से कैसे बचाया जाए?
क्या अब जनता के पास कोई रास्ता बचा है कि वह अपने अधिकार, अपने जीवन और अपने परिश्रम से कमाए रोजगार की रक्षा कर सके?
यह समय केवल सवाल उठाने का नहीं, बल्कि संगठित होकर अपनी आवाज़ उठाने का है — ताकि देश के मेहनतकश लोग, जिनकी रोज़ी ईमानदारी पर टिकी है, वे किसी भी मनमाने आदेश या बेदिल फैसले की भेंट न चढ़ें।
(प्रस्तुति -एनएचजीब्यूरो)



